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मानव का लोभी मन है सबसे बड़ा प्रदूषण l लोभ विघ्न का सूत्र है, करता उन्नति भक्षण l
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मानव का लोभी मन मानव का लोभी मन है सबसे बड़ा प्रदूषण l लोभ विघ्न का सूत्र है, करता उन्नति भक्षण l व्यक्ति से व्यक्ति के मन, टुटे गए सारे बंधन l कुटिलता मुस्कान करे, सत्य करे यहाँ क्रंदन l शीघ्र परिणाम और लाभ, यही चाहता लोभ l धुआँ ,धुआँ धुँधला , प्रदूषित हो रहा क्षोभ l प्रदूषण का ज्ञान, रोकने कि विधि है जानता l निजी स्वार्थ की खातिर, नियम कोई नहीं मानता l भौतिक पर्यावरण का लोभ से होता सामना l तुच्छ सोच जगा रही नकारात्मक भावना l घृणा, क्रोध, ईर्ष्या, संकट का बन गए कारण l प्रकृति प्रेम कर सकता है इसका अब निवारण l प्रकृति के प्रति जागृत हो, मानव मे संवेदना l आध्यात्म से उच्च करे , भीतर की हम चेतना l जब लोभ जाएगा रुक, तो होगा कोई ना दुख l हरे स्वच्छ वातावरण से मिलेगा सच्चा सुख l देश दुखी तो सबको दुख देश सुखी तो सबको सुख l
मुश्किले कितनी भी हो, संघर्ष जारी है l मंजिल अब दूर नहीं, जीत हमारी है l
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एक बीज उड़कर आया, और मिट्टी में समाया, मिट्टी ने उसे जगह दी, जीने की नई वजह दी,
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प्रेम सदा मेरा स्वभाव, मेरी श्वास बने l इन्द्रियों से परे, अमिट अहसास बने l
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मुक्तक प्रेम सदा मेरा स्वभाव, मेरी श्वास बने l इन्द्रियों से परे, अमिट अहसास बने l प्रेम चेतना का है स्तर,इसमें सब है सुन्दर, प्रेम अपरिपूर्ण सुन्दरता की तलाश बने l मातृभूमि को समर्पित दूसरी मुक्तक... खिली पुष्प सुगन्धित सुशोभित हुई l धरती माँ के चरण पखार अर्पित हुई l मनुज अपना जीवन भी मातृभूमि पर वार, देख पुष्प माँ पर कैसे समर्पित हुई ।
प्रेम एक एहसास है, खुशी का आभास है,
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प्रेम एक एहसास है, खुशी का आभास है, अपनी भावनाओं को प्रस्तुत करने का ढंग है, प्रेम बंधन नहीं, स्वच्छंद है, प्रेम मधुर स्वर है, जो शरीर की स्थूलता को भेद कर, आत्मा की गहराई को छू जाये l प्रेम शीतल बयार है, जो तन की तपिश मिटा कर, खुशबू महकाये l प्रेम ऐसा अहसास है जहाँ सुख - दुःख एक समान प्रतीत होते है, प्रेम आंचल की घनी छाँव में, हृदय के अंदर समाता है l प्रेम बुराईयों को हराकर, सत्य पथ दिखलाता है। निश्चल, पवित्र भाव लिए, प्रेम हर बच्चे की मुस्कान है, प्रेम हर एक प्राणी का सम्मान है, प्रेम कभी मिटता नही, प्रेम सदा अमर है, प्रेम सारे संसार को, चलाने वाले ईश्वर हैं।
नारी को समर्पित चार चार पंक्तियाँ
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नारी को समर्पित चार चार पंक्तियाँ... स्नेह ,कोमलता , त्याग और समर्पण l सब कुछ अपना करे जो अर्पण l जीवन शुष्क है अपूर्ण है नारी बिन, नारी ही तो है समाज का दर्पण l मैं एक कतरा, तुम गहरा समंदर हो l मैं देह तुम प्राण मेरे अंदर हो l मैं चन्द्रमा, मुझे तुमसे ही चाँदनी मिली, तुम सूरज, स्वप्रकाशित निरंतर हो l
मानव तेरी कैसी श्रद्धा , क्यों करता है, ऐसी भक्ति । प्रकृति का नित हास करके, बढ़ा रहा तू अपनी शक्ति।
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पर समर्पित पंक्तियाँ... मानव तेरी कैसी श्रद्धा , क्यों करता है, ऐसी भक्ति । प्रकृति का नित हास करके, बढ़ा रहा तू अपनी शक्ति। प्रकृति होती है मनभावन, प्रकृति से मिलता है जीवन। प्रकृति को नित प्रेम देकर, छोड़ दे अब तो लोभ प्रवृत्ति l अपना बस्तर पर मुक्तक.. सूखे मन को करता है तर l सदा बहाए नदियाँ निर्झर l सच्चे यहाँ के सब नर नारी, खुशियाँ देता अपना बस्तर l